क्या सच में हम कुछ अपने ख़ास लोगों को भूल जाते हैं?,या उनकी उपेक्षा कर के हमे अच्छा लगता है,या किसी गलत फहमी का शिकार हो जाते हैं,या बातचीत कम कर के इस खाई को और बढ़ा देते हैं, हम सब एक निश्चित समय के लिए एक रंगमंच पर हैं, हम समसामयिक हैं, रिश्तों की जिस डोर से बंधे हैं,उसको प्रेम से निभाएं तो अच्छा होगा,उपेक्षा कर के समय निकल दिया,बाद में पछताये तो क्या लाभ,सही समय पर सही अहसास ज़रूरी हैं,उन् अहसासों की अभिव्यक्ति ज़रूरी है,साथ वक़्त बीतना ज़रूरी है,एक दिन जब वो अपने ही नही होंगे,तो इस वक़्त का क्या करोगे,ज़रा सोचिए जब संवाद खत्म हो जाता है फिर संबंध पड़ा सुस्ताता है लम्हा लम्हा कर वक्त जिंदगी का बीतता जाता है समय रहते ही न चेते गर हम फिर पछतावा शेष रह जाता है जिंदगी के रंगमच से जाने किस का पर्दा कब गिर जाता है विशेष ही ना जब रहे शेष फिर जीना मुश्किल हो जाता है रोज मुलाकात हो ज़रूरी नहीं पर जब भी मुलाकात हो, उसमे बात ज़रूरी है रिश्तों में संतुलन ज़रूरी है किसी एक को 100 परसेंट ही दे दिया तो औरों के लिए तो कुछ शेष हीं नहीं रहता बात छोटी पर मायने बड़े,सोचना ज़रूरी है।।