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Showing posts with the label मां जाई

साया सी

प्यारी

निरस्त नहीं दुरुस्त

*किसी भी नाते को निरस्त नहीं, झट से दुरुस्त करने वाली  सच की ही डिप्लोमेट रही  तूं मां जाई* *संक्षिप्त,मधुर प्यारे से संबोधन,संवाद तेरे, जैसे शादी में हो शहनाई* *जाड़े की गुनगुनी धूप सी तूं, रही आमों पर जैसे अमराई* *तेरा साथ था इतना प्यारा जैसे तन संग होती है परछाई* *ना गिला ना शिकवा ना शिकायत कोई, हर मर्ज की बनी दवाई* *दिलों पर राज किया है तूने, सच तूं सागर की गहराई* *उम्र छोटी पर कर्म बड़े* आज फिर तेरी याद आई *दो बरस होने को हैं, जब ली थी तूने जग से विदाई* *लम्हे की खता बनी ना भूली जाने वाली दास्तान* *बहुत छोटा शब्द है तेरे लिए महान*  कितने भी हालात विषम हों *हर रिश्ते में रही तेरे गरमाई* *एक किसी के ना होने से डसने लगती है तन्हाई* हेजली सी थी,मासूम सी थी *नातों में तुझे पसंद थी गहराई* *चिराग ले कर भी खोजो तो नहीं मिलेगी तुझ में कोई एक बुराई* "जैसे भीतर से वैसी ही बाहर से  कभी दिखाई नहीं कोई चतुराई* *जैसी राम जी की मर्जी* *कुछ भी पूछने पर तूने बस यही पंक्ति दोहराई* *एक बात बहुत याद आती है तेरी मां जाई! *कहती थी तूं ये सदा जग में, सबसे आसान है करना पढ़ाई* *चाशनी सी ...

मैने पूछा स्नेह से(( प्रश्न स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*स्नेह सागर* कहूं या कहूं तुझे *जिजीविषा* *प्रेम सुता* कहूं या कहूं *उल्लास धरा का* *सुखद आभास* कहूं या कहूं *ऊष्मा* *मधुर व्यवहार,मधुर बोली और मधुर सोच की त्रिवेणी *कहूं  या कहूं *नातों की गरमाई* *कान्हा की बांसुरी की तान कहूं* या कहूं *राम की मर्यादा*  *राधा का सच्चा समर्पण* कहूं या कहूं *मीरा का इकतारा* *सागर की गहराई *कहूं या कहूं *सात सुरों की मल्लिका* *हर अंजुमन की रौनक कहूं* या कहूं *हर नाते पर मधुरता की मोहर* *संयम की प्रकाष्ठा कहूं *या कहूं *अनंत गगन के सपनो की ऊंची उड़ान* *सबकी खास कहूं *या *प्रेम का उच्चतम शिखर कहूं* *वात्सल्य का सागर कहूं *या कहूं *उच्च कोटि की डिप्लोमेट* *संस्कारों की एफ डी *कहूं या *भगति की धारा* कुछ भी कह लूं  हर संज्ञा हर उपाधि  छोटी पड जाती है मां जाई! 11 स्वर और 33 व्यंजन भी नहीं सक्षम हैं जो बता सकें कैसी थी मेरी मां जाई।।

दस्तक

बिन आहट भी जो मन की चौखट पर दस्तक दे जाती है। बिन सोचे भी जो जेहन में अनायास सी आती है। जिसके वजूद की खुशबू आज भी सौंधी सौंधी फिजा में आती है।। अपने रंग में वो रंगरेज जैसे सब रंग जाती है मधुर वाणी,मधुर व्यवहार,सुंदर दिल की त्रिवेणी जहां बह जाती है।। कोई और नहीं वो सबसे छोटी क्रम में पर सबसे बड़ी कर्म में मेरी मां जाई कहलाती है।।

परछाई

सबसे लाडली मां की तूं

सबसे लाडली मां की तूं, सबसे प्यारी तूं मां जाई। कोई भोर सांझ नहीं ऐसी, जब तूं न हो याद आई।।

कभी रुकी नहीं,कभी थकी नहीं

मेहनत और जिजीविषा तूने जननी से विरासत में पाई थी। अभिमान रहा सदा तुझ पर,तूं सबसे प्यारी मां जाई थी।।

आज मेरे घर

न ईर्ष्या न अहंकार

न द्वेष न क्लेश। न ईर्ष्या न अहंकार। ऐसा नाता होता है मां जाई का, नहीं रहता चित में कोई विकार।।

जब भी

कभी कभी

धागा कच्चा,बंधन पक्का((विचार स्नेह प्रेम चंद द्वारा))

चारों हैं हम मां जाई (Thought by Sneh premchand)

प्रेम वृक्ष की ही तो हैं हम चार डाली। बड़े प्रेम से, बड़े जतनों से गई थी पाली।। मिले जब भी एक दूजे से, समझो आ गई होली दीवाली।।। अक्स आता है नजर एक दूजे में मात पिता का, सच में बहन होती ही है निराली।।।।           स्नेह प्रेमचंद