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पंछी की पाती (( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

पंछी की पाती मांसाहारी के नाम प्रकृति ने दिए हैं हमें खाने को जाने कितने उपहार फिर भी क्यों चलाते हो निर्दोष,मूक पशु,पक्षियों पर निर्मम कटार ज़रा सी गर्म हवा रोटी की लगती है सोचो कैसे निकल जाती है जान। हमे क्यों भून भून कर खाते हो, क्या सच मे हो तुम नेक इन्सान।। आज एक विनती करते हैं तुमसे खुद को हमारी जगह पर रख कर देखो कितना निर्मम लगेगा मानव, थोड़ा अनुमान लगा कर देखो।। आये हैं तो जाना है फिर क्यों पाप का बोझ उठाना है। सात्विक भोजन को अपनाकर ,क्यों जीवन हमारा नही बचाते हो। बेबसी,दर्द,पीड़ा,क्रोध, नाराजगी इन सब भावों की काहे प्लेट सजाते हो। मुझे तो तुम इंसान रूप में दानव नजर आते हो मुझे थाल में सजा ओ निष्ठुर तुम कैसे संतुष्ट हुए जाते हो