मगर मानती ही नहीं( Thought on mother by Sneh premchand) November 05, 2020 बहुत समझाया मैंने लेखनी को, पर क्या करूं,ये तो मानती ही नहीं। मां के विषय पर फट से चल पड़ती है,रोको तो भी रुकती ही नहीं।। एहसासों के झरोंखे से निकल, ततक्षण ही दिल की चौखट पर दे देती है दस्तक,थामो भी तो थमती ही नहीं।। दिल की कलम से स्नेह प्रेमचंद Read more