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बहुत कहा

मगर मानती ही नहीं( Thought on mother by Sneh premchand)

बहुत समझाया मैंने लेखनी को,  पर क्या करूं,ये तो मानती ही नहीं। मां के विषय पर फट से चल पड़ती है,रोको तो भी रुकती ही नहीं।। एहसासों के झरोंखे से निकल,  ततक्षण ही दिल की चौखट पर दे देती है दस्तक,थामो भी तो थमती ही नहीं।।                दिल की कलम से                    स्नेह प्रेमचंद