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ऐसी भी क्या आन पड़ी है। thought by sneh premchand

ऐसी भी क्या आन पड़ी है जो बाहर घर से जाना ही पड़े। घूमना ही है तो घूम लो मन के, गलियारों में, देखो कहीं, असमय ही ज़िन्दगी से हाथ धोना न पड़े।। रोते रहते थे जो समय का रोना, अब मिला है तो जी लो संग अपनों के फिर ये बेला दोबारा मिले न मिले।। धुंध लाया है मंज़र जिन बूढ़ी आंखों का, बन जाओ नयन उनके, फिर ये मौका मिले न मिले।। थाम लो कांपते से हाथ वे, जिन्होंने उँगली जकड़ चलना सिखाया था, हो सकता है फिर ये हाथ मिले न मिले।। महसूस करो उन मीठी किलकारियों को फिर इतनी फुर्सत मिले न मिले।। जी लो संग बचपन अपने मासूमो संग फिर ये पल मिले न मिले।।     स्नेहप्रेमचंद