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उठो पार्थ गांडीव उठाओ(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

*उठो पार्थ गांडीव उठाओ* अधर्म पर धर्म को विजय दिलाओ। अति महीन हैं ये मोह मोह के धागे, इन पर विवेक की कैंची चलाओ।। मोह ग्रस्त इस चित की चेतना को, ज्ञान सरिता में डुबकी लगवाओ।। जब जब होती है हानि धर्म की, तब तब जन्म मैं लेता हूं। धर्म की स्थापना के लिए, साधुओं की रक्षा के लिए, नए अवतार में पापी को दंडित कर देता हूं।। तुम भी मत हिचको मेरे प्रिय शिष्य! चलो ,सत्यपथ पर मत डगमगाओ। अन्याय का फन कुचलो, और न्याय को विजय दिलाओ।। *उठो पार्थ !!गांडीव उठाओ* ये मोह मोह के हो धागे हैं, इनकी उलझन से बाहर आओ।। याद करो अभिमन्यु वध को, याद करो उस चकव्यूह को, जहां अकेले निहत्थे को मिल कर सबने ने मारा था। अंतिम श्वास तक लड़ता रहा वो, पर हिम्मत नहीं हारा था।। फिर तुम क्यों लड़ने से पहले ही विचलित से हुए जाते हो??? सब झूठे हैं ये नाते रिश्ते, क्यों समझ नहीं पाते हो????? सत्य के लिए लडो पार्थ, क्यों मोहग्रस्त हुए जाते हो??? *उठो पार्थ गांडीव उठाओ* अधर्म पर धर्म को विजय दिलाओ।। याद करो वो धूतक्रीडा का छल याद करो वो पांचाली का रूदन याद करो वो दुर्योधन का कथन सोया है जो ज़मीर तुम्हारा, उसे चेतना में ले आओ।। *उठो ...

बरस पर बरस यूं ही बीते जाते हैं ((विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

बरस पर बरस यूँ ही बीते जाते हैं। हम हर जन्मदिवस पर खुशियों का जश्न मनाते हैं। परिवर्तशील, ये समय की धारा, हम संग इसके बहते जाते हैं। दिन के पहर नही जब एक जैसे, फिर परिवर्तन से क्यों घबराते है?? नियत समय के लिए बन्धु, हम अपना अपना किरदार निभाते हैं । फिर छोड़ झमेला दुनियादारी का, विदा यहाँ से हो जाते हैं। सब समझते,सब जानते हुए भी क्या हम अपना रोल सही निभाते हैं??,  जीवन का मेला चार दिनों का क्यों प्रेम से सबको अपना मीत नही बनाते है। शत शत नमन मात पिता को, जो हमको इस जग में लाते हैं। हमारे जन्म से अपनी मृत्यु तक, वो दिल मे हमे बसाते हैं।।।। दे देना मुझे अपनी दुआएँ होगा यही सबसे बड़ा उपहार। प्रेम चमन की ये डाली, करे बिनती आपसे बारम्बार।।। जिंदगी के इस मेले में कुछ नए मिलते हैं,कुछ मां जाई से खास बिछड़ भी जाते हैं।। सबके जीवन ने सबकी जगह है अलग अलग,ये बिछौड़े ही हमे समझाते हैं। उनके बिना जिंदगी जिंदगी तो नहीं, हम फिर भी जीए जाते हैं।। उनके बिना जिंदगी से शिकवा भी है, गिला भी है,शिकायत भी है, सहज होने की कोशिश में हम असहज से होते चले जाते हैं।। न हंसते हैं खुल कर, न ही खुल कर ...