क्यों हमे कुछ भी नजर नहीं आता था???? वो अकेली जाने क्या क्या करती थी, हम सब उसे लेते थे सहजता से, क्यों मन विचलित नहीं हो जाता था??? उपलब्ध सीमित संसाधनों में भी वो हर इच्छा पूरी करती थी, लाती न थी शिकन कभी माथे पर, सबका पेट बखूबी भरती थी।। हम फरमाइशो का बड़ा सा पिटारा कैसे झट से खोला करते थे। खाना खा कर बर्तन भी खाट तले ही धरते थे।। हमे क्या चाहिए यह ज़रूरी था नजरों में हमारी, हमे अपना अपना ही सारा नजर आता था। तूं बनी रही एक मशीन सी काम की, हमे मनचाहा सब कुछ मिल जाता था।। क्यों नहीं पिंघलता था दिल हमारा, क्यों हमे वो नजर नहीं आता था। क्यों नजर नहीं आता था उसका वो बर्तनों का ढेर मांजना, क्यों नजर नहीं आता था वो सिर पर चारा रख कर लाना, वो गेहूं की दस दस बोरियां तोलना, वो घणी गर्मी में गर्म तंदूर पर रोटियां सेंकना, वो कपड़ों को धो धो बुगला सा बनाना, वो ईंटों के फर्श को बोरी से रगड़ रगड़ लाल लाल लिश्काना, वो कितने ही लोगों को खुशी खुशी खाना खिलाना, वो घने सवेरे उठ कर काम में लग जाना, वो सावन भादों में खाट खड़ी कर बोरी बिछा कर चूल्हे पर रोटी पकाना, सबकी ब...