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सब अपने थे,ना कोई पराया था

वो बचपन कितना प्यारा था जहाँ लड़ते ,झगड़ते,फिर एक हो जाते वो सच में कितना न्यारा था जब कुछ भी उलझन होती थी तब माँ की होती गोदी थी पिता का सर पर साया था न लगता कोई  पराया था औपचारिकता की बड़ी बड़ी सी चिन ली सबने दीवारें हैं पार भी देखना चाहें अगर हम बेगानी सी मीनारें है तब तेरा मेरा न होता था सब का सब कुछ होता था जहान हमारा सारे का सारा था वो बचपन कितना प्यारा था माँ इंतज़ार करती थी वो सब से बड़ा सहारा था बाबुल के अंगना में चिड़िया का बसेरा बड़ा दुलारा था वो बचपन कितना प्यारा था, नही बोलता था जब कोई अपना, चित्त में हलचल हो जाती थी, खामोशी करने लग जाती रही कोलाहल भीड़ में भी तन्हाई तरनुम बजाती थी, किसी न किसी छोटे से बहाने से मिलन की आवाज़ आ जाती थी, अहम बड़े छोटे होते थे, सहजता लंबी पींग बढ़ाती थी, सबने मिलजुल कर बचपन अपना निखारा था,वो बचपन कितना प्यारा था।। अपनत्व के तरकश से सब प्रेम के तीर चलाते थे, रूठ जाता था गर कोई झट से उसे मनाते थे, नही मानता गर कोई, उसे प्रलोभन से ललचाते थे, लेकिन जीवन की मुख्य धारा में कैसे न कैसे उसे ले आते थे, दुर्भाव के तमस को बड़ी सहजता से है लेता था प्रेम भरा उजिया...