बहुत समझाया लेखनी को मैंने, कभी किसी और विषय पर भी सीखो चलना। क्यों माँ पर ही अटक जाती है सुईं तुम्हारी घूम फिर कर आता है तुम्हे बस उसी पर मचलना।। क्या करूँ हौले से बोली लेखनी, भावों की पाइप से ही शब्दों का पानी मुझ तक आता है। और भावों में सिर्फ और सिर्फ माँ रहती है, तो शब्दों को भी उसी पर चलना भाता है।। यादों के उमड़ घुमड़ कर बादल जब जेहन में अजीब सी हलचल मचाते हैं। फिर वे बादल भावों की बन के बरखा, शब्द सृजन का जल बरसाते हैं।। उन बादलों में भी अलग अलग, जाने कितनी ही आकृतियां उभर कर आती हैं। हर आकृति में माँ दिखती है, जैसे कोई मीठी सी लोरी गुनगुनाती है।। समय सब घावों का मरहम इस बात को।झुठलाती है।। वो याद बहुत आती है,वो याद बहुत आती है।। लेखनी की बात सुन मैं निरुतर थी।। स्नेहप्रेमचंद