Skip to main content

Posts

Showing posts with the label सच कितना न्यारा था

वो गांव हमारा था

*वो गांव हमारा था* सर्दी के मौसम में जहां घूप सुनहरी खिलती थी गर्मी में वो गहरी सी नीम की छाया मिलती थी खेतों में गेहूं की बाली लहर-लहर लहराती थी सरसों के फूलों की बगिया बसंत ऋतु ले आती थी मेथी,पालक, गाजर,मूली ताजी-ताजी मिलती थी भांत-भांत की चटनी जहां सिलबट्टे पर पिसती थी बाजरे की खिचड़ी और रोटी का स्वाद अनोखा था सदाबहार थी जहां राबड़ी जिसका  स्वाद सदा ही चोखा था चांद सितारों की चादर रातों को भाया करती थी माटी की सोंधी सी खुशबु बारिश में आया करती थी खेतों की मेडों से होकर चहुँ ओर ही राहें जाती थी जहां सुख दुख साझे होते थे, महक अपनत्व की आती थी कोई राग न था कोई द्वेष ना था कोई कष्ट ना था कोई क्लेश ना था हम सबके सब हमारे थे गुण दोष एक दूजे के स्वीकारे थे जहां लोक गीतों की धुन मन खुश कर जाती थी बिन लाग लपेट के सादी सी जिंदगी जैसे सबको गले लगाती थी किस- किस के हैं खेत कहां पहचान बताती  थी वो गांव हमारा था री सखी जहां भोर उजाला लाती थी थक कर होकर चूर जहां रात भी सो जाती थी जहां चित चिंता नहीं होती थी जहां  कोई आडंबर ना होता था सब सरल सहज  सा जीते थे प्रकृति से सबका नाता था...