सुन द्रौपदी की पीड़ा जानकी भी फिर रुक न पाई। उसने भी अपने मन की पाती, द्रौपदी, दामिनी दोनों को सुनाई।। आज मैं कहती हूँ,है जो मेरे दिल मे, छला था जिसने,था बहना वो मेरा पिया।। सोच सोच सिहर जाती हूँ, मेरे अपनों ने ही मुझ को जख्म दिया।। मैं जनक दुलारी,थी पूरी मिथिला की प्यारी।। धरा से जन्मी,धरा में ही समाई, मेरी तो कहानी ही है जग से न्यारी।। भूमि पर हल चलाते मिली तात जनक को, भूमिजा को पिता के घर मिला अथाह सा प्यार। मैंने अपना फर्ज निभाया सदैव ही, पर वनवास बना मेरा संसार।। जनक सुता, दसरथ पुत्रवधु हो कर भी, सरल न रहा मेरा जीवन आधार।। हुआ स्वयंवर मेरा भी, मिले मुझे मेरे रघुनाथ। गर्व हुआ मुझे मेरी किस्मत पर, मिला मुझे जब उनका साथ।। छोड़ के मिथिला आई अयोध्या, खिल आए मेरे जीवन मे रंग सारे। इतना प्रेम सम्मान मिला मुझे, जितने हों अनन्त गगन में तारे।।। सब अच्छा था,सब बढ़िया था, हुई एक दिन राघव अभिषेक की तैयारी। नियति को कुछ और ही मंजूर था, राज़ छोड़ वन जाने की आ गई थी बारी।। पल भर भी न सोचा मैंने, पिया की खातिर राज महल सुख, त्याग दिए सारे। धारा भगवा चोला,मैं गई वन संग पिया के, मना कर सबके सब ...