प्रेम वृक्ष पर सिर्फ और सिर्फ स्नेहसुमन ही खिलते हैं।यह कोई राज नही,यथार्थ है।प्रेम का आधार कभी चारु चितवन नही, अच्छा हृदय होता है।अच्छा हृदय पूर्णिमा के इंदु की तरह आलोक का उदय करता है,लगता है जैसे प्रेम हिंडोले में मेघों से निकल कोई स्वप्नलोक से परी आयी हो,ऐसा नयनाभिराम दृश्य जोश पैदा करता है,यह अभिनव नही पुरातन सोच है।पूरब में जब आरुषि दिखती है,सब सुंदर हो जाता है,जैसे माता सावित्री सिंह सवारी कर रही हो।सब प्रेममय सुहानी सी छटा लिए हो जाता है,दूर किसी मंदिर के घड़ियाल से पावनी सी महक आती है,जैसे कोई नरेश मन्दिर में दर्शन के लिए आया हो।सब प्रेममय हो जाता है,अमिट से लगता है।