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चाहत

हर पत्ता अलग होना चाहता है शाख से, स्वार्थ का पलड़ा हो गया है भारी, मिलता था चैन जिस माँ की गोद में, वही बूढ़ी माँ अब लगती है उसे खारी।। समय का दरिया यूँ ही बहता रहता है, समय पंख लगा उड़ जाता है। बीता वक़्त नहीं आता लौट कर, पाछे इंसा पछताता है।। जिसके पल पल हर पल में तुम थे, आज कुछ पल भी उसे देना, क्यों लगता है इतना भारी??? कभी उऋण नहीं हो सकते  मातृ पिता ऋण से, हो बेहतर रहें उनके आभारी।। हर पत्ता अलग होना चाहता है शाख से, स्वार्थ का पलड़ा हो गया है भारी। बड़े जतन से बड़े प्रयत्न से, बागबां अपने चमन को खिलाता है। हर पौध, कली,पत्ते,शाख को, वो महान वृक्ष बनाता है।। वृक्ष बनाने की इस प्रक्रिया में वो पूरा जीवन बिताता है। पर आती है जब साँझ इस बागबां की, वृक्ष बागबां से ही नज़रें चुराता है।। ये कैसी अजब गजब सी रीत बनी है, शोला बन गई है चिंगारी। हर पत्ता अलग होना चाहता है शाख से स्वार्थ का पलड़ा हो गया है भारी।। वृक्ष बड़ा होता है हौले हौले, वो पुष्प और फल समय संग लाता है। बागबां खुश होता है देख वृद्धि निज वृक्ष की, मन उसका तृप्त हो जाता है।। अपनी बगिया को देख महकता, वो भीतर से मुस्काता है। बृक्ष ...