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पता ही ना चला(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

पाई पाई बचाते बचाते हम कब खुद ही खर्च हो गए पता ही ना चला सफर करते करते कब मंजिल आ गई पता ही ना चला बचपन की सुहानी भोर कब जीवन की शाम में बदल गई पता ही ना चला पर जिंदगी का परिचय अनुभूतियों से करवाने वाली मां जब जीवन के रंगमंच से चली गई तो बहुत अच्छे  से पता लग रहा है