जिंदगी की किताब के हर किर्तास पर नजर मां ही मां आती है। क्या करूं?? बस गई है जेहन में ऐसे, जैसे एक सांस आती है,एक सांस जाती है।। कौन सी ऐसी भोर सांझ है,जब वो याद नहीं आती है??? अपनी जान पर खेल कर, हमे इस जग में लाने वाली,एक दिन हौले से रुखसत हो जाती है। पर ध्यान से सोचो,तन से बेशक चली गई हो,पर मन से कहीं वो जा पाती है??? अंतर्मन के भीतर कर लेती है ऐसे बसेरा,फिर संग हमारे ही वो जाती है।। धैर्य की सीमेंट,वात्सल्य का पानी,सुरक्षा की करणी से वो जिंदगी की इमारत बनाती है।। तिनका तिनका जोड़ कर,लम्हा लम्हा दे कर, हमें धनवान कर जाती है। ऐसी होती है उसकी बरकतों की बारिश,अंतरात्मा शुद्ध हो जाती है।। मां जैसा सच में होता नहीं कोई इस जग में,किसी को जल्दी,किसी को देर से,पर समझ तो एक दिन आती है।। मां सा पुर्सान ए हाल नहीं मिलता फिर कभी कोई,हो समस्या गर कोई,मां झट समाधान बन जाती है।। मां पर तो ये मेरी लेखनी,सतत,अविलंब,अविराम चलती जाती है।। सौ फीसदी ये कहती है सत्य,भीतर से खुश हो कर इठलाती है।। स्नेह प्रेम चंद