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मसीहा कहूं या कहूं फरिश्ता(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

मसीहा कहूं या कहूं फरिश्ता, हर संज्ञा छोटी पड़ जाती है एक जिंदगी में कोई इतना  कैसे कर सकता है??? समझ,समझ नहीं पाती है कितनी दूरगामी सोच रही  रतन जी आपकी, यूं हीं तो नहीं संकल्प से  सिद्धि मिल जाती है दान की जब जब बात चलेगी द्वापर के कर्ण के बाद कलयुग के कर्ण रतन टाटा की बारी आती है तुम्हारी गलती और कमी सिर्फ तुम्हारी है दूसरे को दोष ना दो इसके लिए,उनकी ये कितनी खास बात जेहन में बस जाती है कमाया तो बहुत और भी लोगों ने, मूल्यों को प्राथमिक रखने में, शख्शियत आपकी जेहन में आती है यूं हीं तो नहीं ये लेखनी सरपट दौड़े जाती है कुछ नहीं,बहुत कुछ खास रहा आप में, मेरी छोटी सी समझ को बात ये बड़ी समझ में आती है नाम के ही नहीं,चरित्र के भी रतन थे आप आप की चमक से चमक रहा है हिंदुस्तान नमक से जहाज तक बनाया आपने, करोड़ों अरबों का दिया था दान ऊंचे सपने देखने वालों की सच किस्मत ही बदल जाती द्वापर के कर्ण सा शरणागत की शरण सा कर्मठता में माधव सा प्रतिबद्धता में राघव सा रतन टाटा है उनका नाम एक ही जीवन में कोई  इतना कैसे कर सकता है बना दिया कभी ना तोड़े  जाने वाला कीर्तिमान व्यापार हो या हो व्यवहार रखो साथ

मसीहा कहूं या कहूं फरिश्ता