मत खेलो ये खून की होली,बन्द करो ये अत्याचार,वो लाडले भी हैं लाल किसी माँ के,है उन्हें भी जीने का अधिकार,वो सरहद पर देते हैं पहरा,तब हम चैन की निंदिया सोते हैं,कभी मरु में,कभी बर्फ में ,हर हालात को सहजता से सहते है,और कभी नही रोते हैं,आती है जब कोई प्राकृतिक आपदा,ये तब भी दौड़े आते हैं,जाने कितने लोगों की जानें ये हँसते हँसते बचाते हैं,पर हम क्या कर रहे हैं,जब जान इनकी जाती है,लुट जाती है कोख किसी माँ की,वो आजीवन तड़फती रह जाती है,बहुत सो लिए,अब तो जाग लो,जियो और जीने दो पर करो विचार