जब भी देखा मां जाई को, मुझे मां हौले से याद आई। सच में ही वो कितनी अच्छी थी थी मैं तो उसकी परछाई।। सहज योग का अनहद नाद वो कितना बखूबी बजाती थी। कभी नहीं रुकती, कभी नहीं थकती थी, कर्म की मांग में सफलता का सिंदूर सजाती थी।। जब भी देखा मां जाई को, मां फिर हौले से याद आई। याद तो जब आए, जब जेहन से जाती हो, फिर सांझ घनी है गहराई।। स्नेह प्रेमचंद