हर उस व्यक्तित्व के अस्तित्व की एक रहती है जिज्ञासा, आए थे हरि भजन को,ओटन लगे कपास,क्या यही थी जीवन की परिभाषा???? मुख्य था वो गौण बन गया,गौण मुख्य की पगडंडी पर खोजने लगा राहें, लक्ष्यहीन सा चला पहिया जीवन का, वहीं चल दिए, जहाँ दिखी खुली बाहें।। वो जीवन भी क्या जीवन है,हो न जिसमे कोई अभिलाषा, भाग्य भी चाहता है बजे शंख कर्म का,कर्महीनता लाती है मात्र निराशा।। हर शिक्षा मस्तक पर अपने संस्कार का सिंदूर नही सजाती, जीवन मे हर राह सीधी हो,ज़रूरी तो नही,कई बार सरलता जीवन से सहजता है चुराती।। न निर्धारित पाठ्यक्रम है जीवन का कोई,न बुझती है सबकी ज्ञान पिपासा, सबके अहसास,इज़हार अलग हैं, कहीं जोश उल्लास कहीं घोर हताशा।। आए थे हरि भजन को,ओटन लगे कपास,क्या यही थी जीवन की परिभाषा??? स्नेह प्रेमचन्द