अल्फ़ाज़ों का आईना भावों का प्रतिबिंब शत प्रतिशत दिखा ही देगा,ज़रूरी तो नहीं।अनुभूति की गहराई इज़हार के इंचीटेप से मापी ही नहीं जा सकती।। इज़हार ए अहसास करो भी तो दूसरे को समझ आ जाए, ये भी कतई ज़रूरी नहीं।सबकी सोच,प्राथमिकताएं,अनुभव सब अलग अलग हैं,यही कारण है कई बार जो लेखक लिखता है पाठक वही नहीं पढ़ पाता। जैसे सबके चश्मे का नम्बर अलग है ऐसे ही सबकी सोच का दायरा भी अलग है।कोई तो चींटी भी नहीं मार सकता,किसी को मांसाहार करने से भी कोई परहेज नहीं।। स्नेहप्रेमचंद