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सातों सुर पड जाते हैं फीके (( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

सातों सुर पड़ जाते है फ़ीके,  जब कोई माँ लोरी गाती हैं। माँ के आँचल में है वो पूर्णता, जहां ममता डेरा जमाती है।। मा बना दे जो भी रोटी, वो प्रसाद बन जाती है। माँ की हर चितवन होती है चारु, मा खुशियाँ ही खुशियाँ सहेज कर लाती है।। शक्ल देख हरारत पहचान लेती है मां हमसे ही हमारा परिचय करवाती है आ जाए गर कोई परेशानी मां झट समाधान बन जाती है जीवन के इस चक्रव्यूह में  मां निकास द्वार बन जाती है हमारा जीवन ना बने अग्नि पथ मां सहजता की राह दिखाती है सातों सुर पड जाते हैं फीके जब कोई मां लोरी गाती है रीति है मां रिवाज है मां शिक्षा है मां संस्कार है मां उत्सव है मां उल्लास है मां कर्म है मां प्रयास है मां जीवन के तपते मरुधर में हरियाली है मां और अधिक नहीं आता कहना पर्वों में जैसे दिवाली है मां मां प्रीत मां स्नेह सिंधु मां हर घाव पर मरहम बन जाती है जब सब पीछे हट जाते हैं मां आगे बढ़ कर आती है सातों सुर पड जाते हैं फीके जब कोई मां लोरी गाती है

पूछ न लागी जब मेरी सखियां(( विचार स्नेह प्रेमचंद द्वारा))

पूछन लागी मोसे सखियां, बोल सखी री! राखी पर तूँ क्या पीहर से लाई है? आज बता दे बेबाक सहेली, क्यों कहने से हिच किचाई है?? जो लाई हूँ वो इस तन की आंखों से नही दिखेगा, कच्चे धागे पर पक्के बंधन के पर्व का पुष्प इस हिवड़े में ताउम्र खिलेगा मैं सहजता के पौधे से उमंग उल्लास के पुष्प लाई हूं मात पिता ने  जिस प्रेम अंकुर को लगा कर जग से लेली थी विदाई, उसे सींच कर स्नेह जल और प्रेम खाद से, आज कितनी ही कली हैं पुष्प बन आई।। मैं अपने झीने झोले में मज़बूत से बन्धन के पल चुरा कर लाई हूँ, मैं मस्तक पर विश्वास की रोली,अपनत्व के चावल खिला कर  आई हूं, मैं मीठे से कर के शगुन सबके जीवन मे मिठास भर आईं हूँ, मैं भतीजे भतीजी में भाई बहन के हुनियारे महसूस कर आई हूं मैं माँ के अधरों की मुस्कान भाभी बहनों के लबों पर देख कर आई हूँ, मैं मां की परंपरा को सहेज फिर घर वापस आई हूं यही लेने गई थी मैं,  ये झोले भर भर लाई हूँ, मैं लंबी उम्र और खुशहाल से जीवन की सबको दुआ दे आई हूँ, हर बार की तरह इस राखी पर भी, मैं इन सब से मालामाल हो आई हूँ, मात पिता की सौंधी सी महक, दिल मे बसा कर लाई हूँ, भाई बहनों में गई थी दे

राम तुम्हे फिर आना होगा

समाधान के उजले मोती

किसी भी समस्या के मूल में जब तक नहीं तुम जाओगे समाधान के उजले मोती कहो कैसे निकाल कर लाओगे जब तक ना करोगे बेटों को मर्यादित बेटी कैसे बचाओगे????? बिन संस्कार शिक्षा मात्र अक्षर ज्ञान है समझने में कितनी देर लगाओगे गलती और गुनाह में बहुत बड़ा अंतर है हो बेहतर गर भेद के इनको तुम जान पाओगे सोच,कर्म,परिणाम की त्रिवेणी बहती आई है युगों से,जान लोगे बखूबी गर किसी भी कालखंड में जाओगे सृष्टि की रचना करने वाली को कब सम्मान दे पाओगे कब तक सुलाए रखोगे राम को, कब तलक इस रावण को ही जगाओगे पुतले नहीं अब तो आया समय है जला दो रावण को,कब तक सोचे जाओगे लंका दहन,महाभारत का युद्ध हुआ नारी अस्मिता की रक्षा हेतु, तुम कब तक मोमबत्ती जलाओगे?????

राम तुम्हें फिर आना होगा

किसी भी समस्या के मूल में (( विचार स्नेह प्रेमचंद चित्र ऐना द्वारा))

उपहार नहीं एक वायदा चाहिए