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कड़वा है मगर सच है

कितनी नादानियों को हमारी,माँ अपने दिल में सहजता से समा लेती है,कितनी भूलों को हमारी,माँ क्षमा का तिलक लगा देती है,कितने अपशब्दों को हमारे,माँ यूँ ही भुला देती है,हमारी इच्छाओं की पूर्ति हेतु,माँ अपनी ख्वाशिओं को बलि चढ़ा देती है,हमारे उज्जवल भविष्य हेतु,माँ अपना वर्तमान कर्म की वेदी पर चढ़ा देती है,माँ हमे क्या क्या देती है,क्या क्या करती है,शायद हम यह समझ भी नही पाते,पर हम माँ को क्या देते हैं,यह विचार भी जेहन में लाने से हैं कतराते, *कड़वा है,पर सच है*

बोधगम्य